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पहाड़ों का अधूरा प्यार क्या अजय को वो मिल पाया जिसका सपना उसने देखा ?

 पहाड़ों के बीच बसा एक छोटा-सा कस्बा छोड़कर रोज़ सुबह सरकारी दफ़्तर पहुँचता था। वह वहीं चपरासी (peon) की नौकरी करता था। सादा पहनावा, भोली मुस्कान और मन में अपार सपने—यही उसकी पहचान थी।


दफ़्तर में उसकी सबसे बड़ी खुशी थी रश्मि मैडम। रश्मि उस कार्यालय में ऊँचे पद पर कार्यरत थीं—पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी। अजय के लिए वह किसी देवी से कम नहीं थीं।

अजय हर रोज़ रश्मि के लिए चुपचाप छोटे-छोटे काम करता। उनकी टेबल हमेशा साफ़ रहती, चाय समय पर पहुँचती, फाइलें सही जगह रखी जातीं। अगर कभी रश्मि को देर तक रुकना पड़ता, तो अजय चुपचाप सुनिश्चित करता कि उनकी गाड़ी तक सुरक्षित पहुँचे।

रश्मि को यह सब सिर्फ़ उसकी जिम्मेदारी लगती थी। उनके लिए अजय महज़ एक ईमानदार चपरासी था, जो अपना कर्तव्य निभाता था।
लेकिन अजय के लिए हर छोटा-सा काम उसके दिल की पुकार थी—एक अधूरी चाहत का इज़हार।

समय बीतता गया। अजय की भावनाएँ दिन-ब-दिन गहरी होती चली गईं। वह कई बार सोचता कि अपने दिल की बात कहे, मगर हिम्मत जुटा नहीं पाता।

फिर आया वैलेंटाइन डे।
सुबह से ही अजय बेचैन था। उसने बाज़ार से एक छोटा-सा गुलाब और एक कार्ड खरीदा। कार्ड पर कांपते हाथों से लिखा—
"रश्मि जी, आप मेरी ज़िंदगी की सबसे सुंदर वजह हैं।"

दफ़्तर में जब सब मौजूद थे, अजय ने साहस जुटाया।
वह गुलाब और कार्ड लेकर रश्मि की टेबल के सामने खड़ा हो गया। उसकी आवाज़ काँप रही थी—
“मैडम… मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ… मैं… मैं आपसे…”

दफ़्तर में सबकी नज़रें उसी पर टिक गईं।
रश्मि अचानक असहज हो गईं। उन्हें यह सब सार्वजनिक रूप से सुनना अच्छा नहीं लगा।
गंभीर स्वर में बोलीं—
“अजय! यह क्या बेहूदगी है? आप अपने पद और मर्यादा को भूल गए हैं? ऑफिस में ऐसे ड्रामे मत कीजिए।”

पूरा माहौल सन्नाटे में डूब गया।
अजय का चेहरा उतर गया। उसकी आँखों में वो चमक बुझ चुकी थी।
गुलाब धीरे-धीरे उसके हाथ से गिरकर ज़मीन पर बिखर गया।

उस दिन के बाद अजय फिर कभी रश्मि की आँखों में उसी तरह नहीं देख पाया। वह अपने काम में लगा रहा, लेकिन उसके दिल की कली वहीँ मुरझा गई थी।

और रश्मि? शायद उन्होंने भी बाद में महसूस किया हो कि अजय का प्यार मासूम था, मगर उस दिन की दूरी हमेशा के लिए दोनों के बीच एक अदृश्य दीवार बन गई।


पहाड़ों का अधूरा प्यार – दूसरा अध्याय

वैलेंटाइन डे की उस घटना के बाद अजय और रश्मि के बीच एक अजीब-सी दूरी बन गई थी।
रश्मि ने उसे डाँटा तो था, लेकिन उसके बाद जब भी वह अकेली होती, उसे अजय की मासूम नज़रें याद आ जातीं। दिल की गहराई में कहीं न कहीं, वह भी अजय की ईमानदारी और सादगी की ओर खिंच चुकी थी—पर अब सीधे कहने का साहस उसमें भी नहीं था।

कुछ महीने बीते।
सरकार की ओर से एक नई वैकेंसी निकली। यह परीक्षा पास करने वाला एक उच्च पद पर आ सकता था।
जब दफ़्तर में इसकी चर्चा हुई, तो सबने मज़ाक में कहा—
“अरे अजय, अब तो तुम्हारा भी भविष्य बदल सकता है।”

रश्मि के कानों में ये बात पड़ी।
उसका मन अचानक हल्का और प्रसन्न हो गया।
"अगर अजय इस नौकरी में सफल हो गया, तो शायद… शायद उसके और मेरे बीच की सारी दीवारें टूट जाएँ।"

वह सीधे शब्दों में कुछ कह नहीं पाती, मगर इशारों और छोटे-छोटे हौसलों से अजय को प्रोत्साहित करने लगी।
कभी कहती—“अजय, तुम्हें पढ़ाई का भी ध्यान रखना चाहिए।”
कभी फाइल पकड़ाते हुए मुस्कुराती—“तुम्हारी मेहनत में कोई कमी नहीं है, बस थोड़ी और कोशिश करो।”

अजय इन बातों को अपने काम के लिए साधारण प्रोत्साहन समझता रहा।
उसे यह आभास ही न हो सका कि रश्मि के दिल में उसके लिए कुछ बदल चुका है।

इसी बीच, अचानक रश्मि का ट्रांसफर आदेश आ गया।
पूरा दफ़्तर सन्न रह गया। अजय चुपचाप कोने में खड़ा रहा। वह कुछ कहना चाहता था, पर कह नहीं सका।
विदाई के दिन रश्मि ने बस इतना कहा—
“अजय… अपना ख़याल रखना… और अपनी ज़िंदगी को आगे बढ़ाना।”

उसकी आँखों में नमी थी, मगर शब्दों में अब भी दूरी झलकती थी।
अजय ने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया।

रश्मि गाड़ी में बैठ गईं और पहाड़ों की उस पगडंडी से धीरे-धीरे दूर चली गईं।
अजय वहीं खड़ा रह गया—दिल में अधूरी बातें, आँखों में धुंधले बादल।

अब बस इंतज़ार था—क्या अजय सचमुच वह परीक्षा पास कर पाएगा?
क्या किस्मत उन्हें फिर से किसी मोड़ पर मिलाएगी?



पहाड़ों का अधूरा प्यार – तीसरा अध्याय

दिन, महीने और साल धीरे-धीरे बीत गए।
अजय और रश्मि के बीच कोई संपर्क नहीं हुआ। न कोई पत्र, न कोई फ़ोन, और न ही किसी ऑफिस में उनका नाम साथ लिया गया। दोनों की ज़िंदगियाँ अपनी-अपनी धुन में आगे बढ़ रही थीं, लेकिन दिल के किसी कोने में अधूरा संवाद चुभता ही रहा।

आख़िरकार वो दिन आया, जब परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ।
अजय ने अपना सब कुछ इस परीक्षा में झोंक दिया था—रात-रात भर पढ़ाई, नोट्स बनाना, पुराने सवाल हल करना। उसने अपनी उम्मीदों, अपनी भावनाओं, यहाँ तक कि अपने सपनों को भी दाँव पर लगा दिया था।

लेकिन जब रिज़ल्ट सामने आया…
सूची में उसका नाम कहीं नहीं था।

अजय की आँखें भर आईं।
वह अपने कमरे में जाकर अकेला बैठ गया। माथा पीटते हुए फूट-फूट कर रोने लगा।
“हे भगवान… मैंने और क्या कमी छोड़ दी थी? मैंने तो अपनी पूरी जान लगा दी थी।”

वो रोता रहा… जब तक पहाड़ों की ठंडी हवाएँ भी उसके दर्द को छूकर न निकल गईं।

उधर, दूर शहर में बैठी रश्मि को जब यह ख़बर मिली, तो उसका दिल भी टूट गया।
वह जानती थी कि अजय ने कितनी मेहनत की है।
उसे याद आया कि कैसे उसने छुपकर उसकी मदद की थी—कभी किताबें खरीदकर, तो कभी पैसे भेजकर, अपने एक चाचा के नाम से।

उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
"ये सब व्यर्थ कैसे हो गया? उसकी मेहनत बेकार कैसे हो गई?"

रश्मि के सामने सवाल खड़े थे—क्या किस्मत हमेशा उन्हें अधूरा ही रखेगी?
क्या अजय का संघर्ष और उसका मौन प्रेम हमेशा यूँ ही दबा रहेगा?

उस रात दोनों अलग-अलग जगहों पर रोए।
पहाड़ों की चाँदनी गवाही दे रही थी कि दो दिल एक-दूसरे से जुड़े तो हैं, लेकिन वक्त और किस्मत की दीवारें उनके बीच खड़ी हैं।


पहाड़ों का अधूरा प्यार – चौथा अध्याय

कुछ और महीने बीत गए।
अजय धीरे-धीरे अपने पुराने घावों पर मरहम रखने की कोशिश करने लगा। उसने खुद को दफ़्तर और पहाड़ों की दिनचर्या में उलझा लिया। वहीं रश्मि ने भी अपने नए ऑफिस में काम के बोझ से अपने दिल की टीस दबा दी।

दोनों एक-दूसरे से दूर थे, मगर दिल की गहराइयों में अब भी एक-दूसरे की परछाईं बसी हुई थी।

फिर एक शाम अचानक टीवी पर बड़ी ख़बर चली—
"कानपुर में एक बड़ा गिरोह पकड़ा गया है, जो पैसों के दम पर सरकारी परीक्षाओं के नतीजे बदलता था। जाँच में सामने आया है कि कई परीक्षाओं के परिणाम इस गिरोह ने प्रभावित किए हैं, जिनमें वह परीक्षा भी शामिल है, जो पिछले साल हुई थी…"

यह सुनते ही अजय का दिल जोर से धड़कने लगा।
"तो… मेरा नाम रिज़ल्ट में न आने की वजह… ये धोखाधड़ी थी?"

उसकी आँखों में फिर से आँसू आ गए, मगर इस बार दर्द के साथ गुस्सा भी था।
"मेरी मेहनत, मेरी रातें, मेरी उम्मीदें… सब चुरा लीं इन लोगों ने।"

दूसरी ओर, रश्मि भी अपने ऑफिस में न्यूज़ चैनल पर यही देख रही थी।
उसका दिल काँप उठा।
"तो अजय की हार उसकी कमी नहीं थी… बल्कि ये बेईमानी थी।"

रश्मि ने तुरंत मोबाइल उठाया, पहली बार इतने लंबे समय बाद।
उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं।
वह चाहती थी कि अजय से कहे—
"मुझे तुम पर गर्व है… हार तुम्हारी नहीं थी।"

लेकिन नंबर मिलाकर भी वह चुप रह गई।
फोन कान तक ले गई, पर कॉल बटन दबाने की हिम्मत न जुटा पाई।
बस मोबाइल को सीने से लगाकर आँसू बहाने लगी।

अजय वहीं पहाड़ की ढलान पर खड़ा होकर आसमान की ओर देख रहा था।
उसे लग रहा था, शायद अब भी उसकी मेहनत को कोई पहचान नहीं देगा।
मगर उसकी आत्मा जानती थी—उसने ईमानदारी से लड़ाई लड़ी थी।



पहाड़ों का अधूरा प्यार – पाँचवाँ अध्याय

आख़िरकार वो दिन आ ही गया, जिसका इंतज़ार न जाने कब से अजय और रश्मि दोनों कर रहे थे।
सरकारी परीक्षा के घोटाले की जाँच पूरी हुई और ईमानदार उम्मीदवारों की सूची जारी की गई।

सूची के सबसे पहले नंबर पर अजय का नाम चमक रहा था।
उसने न केवल पास किया था बल्कि टॉप भी किया था।

पूरा दफ़्तर खुशी से झूम उठा।
जो लोग कभी उसे "चपरासी" कहकर बुलाते थे, वही अब आदर से कहने लगे—
“अब तो अजय साहब हो गए।”

उस रात उसके ऑफिस के साथियों ने एक शानदार पार्टी दी।
सब लोग उसे गले लगाते, उसकी पीठ थपथपाते और बार-बार कहते—
“अजय साहब, एक पैग तो बनता है।”

अजय ने बार-बार मना किया।
उसने कहा—“मैंने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया।”
लेकिन जब बड़े अधिकारी और साथी मिलकर ज़ोर देने लगे, तो वह हार गया और पहली बार उसने गिलास उठाया।

शराब का असर धीरे-धीरे चढ़ने लगा।
उसके दिल की गहराई में दबे हुए दर्द के बाँध टूट गए।
नशे में अजय ने सबके सामने बोलना शुरू कर दिया—

“तुम सब मुझे आज बड़ा साहब कह रहे हो… लेकिन क्या तुम जानते हो मैं ये सब किसके लिए बना?
मैंने तो सारी मेहनत, सारी ज़िंदगी… सिर्फ़ रश्मि के लिए की थी।

हाँ, मैं उससे पूरे दिल से प्यार करता था।
मुझे यकीन था कि वो भी मुझे चाहती है… उसकी आँखों में दिखता था।
लेकिन… लेकिन वो भी औरों जैसी निकली।

समाज ने, उसके पद ने… मुझे छोटा समझकर ठुकरा दिया।”

पूरा हॉल सन्न रह गया।
सबने पहली बार अजय के दिल की सच्चाई सुनी थी।

अजय ने गुस्से और दर्द में गिलास मेज़ पर पटकते हुए कहा—
“मुझे बस इतना बता दो… वो अब किस ऑफिस में है।
मैं वहीं पोस्टिंग लूँगा… और फिर उससे बदला लूँगा।
उसे दिखाऊँगा कि वो अजय, जिसे उसने कभी छोटा समझा था, अब सबसे बड़ा साहब बन गया है।”

उसकी आँखों में नशे और आँसुओं का मिला-जुला तूफ़ान था।
सब साथी चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे।
किसी ने सोचा भी नहीं था कि अजय के दिल में इतना दर्द, इतना क्रोध जमा हुआ है।


बड़ा अजीब योग हुआ—जिसका अजय ने ख्वाब में भी सोचा नहीं था, वही हुआ: उसकी पोस्टिंग रश्मि के ऑफिस में आ गई।
फेयरवेल का दिन था; अजय भीतर-भीतर खुश तो था पर गुस्से से भरा भी। उसके शब्द बार-बार उसी घुटते दर्द को निकलते रहे—“अब में उसका जीना हराम कर दूंगा।”

दफ़्तर में खुशियों के साथ एक सन्नाटा भी था—क्योंकि जो कभी चुपचाप काम करता था, अब दफ़्तर के नियमों को थामे आने वाला एक नया अधिकारी बनकर आया था। कुछ ही दिनों में अजय ने अपने बदले की पहली झलकें दिखानी शुरू कीं—रश्मि की रिपोर्ट्स पर अनावश्यक सवाल, मीटिंग्स में टाल-मटोल, छोटे-छोटे आदेश जो रश्मि के काम को जूझा दें। ये सब देख कर कुछ लोग हैरान हुए, पर किसी ने अजय की असल वजह नहीं समझी।

वहीं जतिन अंदर से बेचैन था। उसे याद आ रहा था कैसे उस दिन रश्मि ने किताबें, नोट्स और पैसे उसके हवाले किए थे—कसम ले कर कि यह सब अजय को छिपाकर भेज देगा और किसी को कुछ नहीं बताएगा। पर अब जतिन सुन रहा था अजय के उन कटु शब्दों को—और दिल कह रहा था कि सच सामने आना चाहिए, वरना कोई और नाते टूट जाएगा।

एक शाम जतिन रश्मि के पास गया। कमरे में हल्की रोशनी थी और रश्मि की आँखें थकी हुई पर बेचैन थीं। जतिन ने धीमे से कहा, “मैडम… अब और छुपाना मुश्किल है। अजय बहुत आक्रामक हो गया है। वो कह रहा है कि उसका बदला लेगा।”

रश्मि के हाथ कांप गए। हवा ठंडी थी और उसका दिल थर-थर कर उठा—“मुझसे कैसे छुपा सकेगा? मैंने उसे तो चाहा था, उसकी मदद की थी… पर ऐसा कभी सोचा नहीं था कि वो इस तरह बदला लेने निकलेगा।”

जतिन ने झिझकते हुए सारी बात बताई—कैसे रश्मि ने किताबें और पैसे भेजवाए थे, कैसे उसने कसम खाई थी कि वह चुप रहेगा। अब उसने कहा कि सच सामने आना चाहिए—न चुप्पी, न छलावा।

रश्मि ने ठंडी साँस ली और तय किया—अब और सहना गलत होगा। अगले दिन उसने अजय को सिग्नल दिया कि कुछ जरूरी बात है और दोनों एकांत में मिल गए—बिल्डिंग के पीछे वाले बगीचे में, जहाँ सुबह की ठंडी हवा और पुराने पेड़ की छाँव थी।

अजय वहीं खड़ा था—आँखों में अभी भी गुस्सा, होंठों पर कड़वाहट। रश्मि ने साहस करके कहा, “अजय… मैं तुमसे कुछ छुपा रही थी।”

उसकी आवाज़ काँप रही थी पर आँखों में सच्चाई थी—“मैंने तुम्हें कभी ठुकराया नहीं। जो दिन तुमने ऑफिस में कहा था, मैं उस समय शर्मिंदा थी। मैंने तुम्हें सार्वजनिक रूप से टोक दिया—पर वो टोकना ठुकराने के कारण से नहीं था। मैं उस समय अपनी मर्यादा और ऑफिस की छवि को बचाना चाहती थी। पर जब तुम्हें ज़रूरत थी, मैंने चुपचाप किताबें और पैसे भेजे—जतिन के ज़रिये। मैंने तुम्हारी मदद इसलिए की क्योंकि मैं… मैं तुम्हें चाहती थी, पर बताने की हिम्मत नहीं कर पाई।”

अजय की आँखों में पहला झटका था—वह कुछ शब्द गले से थूककर बाहर निकालना चाहता था पर नहीं कर पाया। उसके अंदर जो आग जल रही थी, उसमें अब मातम-सा उतर आया। कुछ पल के लिए दोनों बस साँसें ले रहे थे—एकतरफा दर्द अब जवाब मांग रहा था।

अजय ने अपनी आवाज़ रोके रोके निकाली, “तुमने… मुझे छुपा कर मदद की? तुमने सच में?”
रश्मि ने सिर झुकाया और फिर आँखों में आँसू आ गए—“हाँ। मैंने तुम्हें अपमानित नहीं किया, मैंने उस दिन तुम्हें बचाने की कोशिश की—अपना मन और इज्ज़त दाँव पर लगाकर। पर तुम्हारे गुस्से ने मेरे सारे ख़याल उलट दिए।”

अचानक अजय को अपने शब्दों की सच्चाई समझ आई—उसने जो बदला लेने की बातें कही थीं, वे उसके उस टूटे हुए दिल का धागा थी, न कि किसी ठोस बदले की ठान। उसकी आँखों में पछतावा और शर्म ने जगह बना ली। उसने झुककर रश्मि का हाथ पकड़ लिया—आदत से नहीं, बल्कि किसी गहरी मानवीय जरूरत से।

“मैं… मुझे माफ़ कर दो,” अजय की आवाज़ फटकर निकली—“मैंने जो कहा, वो नशे में निकला था, पर सच में मैं कभी तुम्हें चोट पहुँचाना नहीं चाहता था। मैं गलती कर गया। मैंने तुम्हारे बारे में जो भी सोचा—गलतफहमी में जी रहा था।”

रश्मि की आँखों से आँसू बह निकले—यह वह पल था जब दोनों के दिल की दीवारें दरकने लगीं। वे कुछ देर खामोश रहे—दोनों की सांसें एक समान चल रही थीं।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। ऑफिस में रिश्तों और पदों की जटिलता थी—अब दोनों के लिए साफ़ रास्ता चुनना मुश्किल था। रश्मि ने धीरे से कहा, “हमें अब सोच-समझकर आगे बढ़ना होगा। मेरे पद और तुम्हारी नयी जिम्मेदारी—दोनों को देखते हुए हमें पेशेवर रहना होगा। पर दिल से—मैं हमेशा तुम्हारे साथ खड़ी हूँ।”

अजय ने नमन कर के अपने पगगुड़ियों की तरह पुरानी आदतों को थामते हुए कहा, “मैं बदला नहीं लूँगा। जो किया वो मेरे दर्द का जवाब था, पर अब मैं समझता हूँ। अगर तुम चाहो तो मैं अपनी पोस्टिंग बदल सकता हूँ, पर मैं तुम्हारे साथ ईमानदारी से रहना चाहता हूँ—छोटी-छोटी बातों से, बिना शोर-शराबे के।”

जतिन जो कुछ दूर खड़ा था, उसने हल्की राहत की सांस ली—उसने सच्चाई बोली और इससे दो जिंदगियाँ बच गई थीं। उसने भी कहा, “मैंने वादा तोड़ा था और आज सच उघाड़ा—मुझे किसी सजा की जरूरत हो तो ले लूँगा।”

उस दिन के बाद अजय ने अपने पद का गलत इस्तेमाल करना बंद कर दिया। उसने रश्मि से पेशेवर ही व्यवहार रखा, पर दोनों के बीच अब एक नई समझ थी—एक छोटी-सी मुस्कान, एक सहारा देती हुई नजर, और गुप्त रूप से चलती हुई परवाह। ऑफिस में लोग धीरे-धीरे नोटिस करने लगे कि वे अब अलग तरह से बातचीत करते हैं—कठोर नहीं, बल्कि संयमित और सम्मानजनक।

कहानी यहाँ रुकती नहीं—यह बस एक नया मोड़ लेती है। प्यार और भरोसे को बनाने में समय और संयम चाहिए—पर जब दोनों दिल इमानदार हों, तो पहाड़ों की सबसे मोटी दीवार भी दरक जाती है।

















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